अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है जो ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में है। भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।
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श्रीमत् अष्टावक्रगीता
का हिन्दी अनुवाद
॥ श्रीः ॥
अथ:
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥१॥
** हे प्रभो ! (पुरुषः ) ज्ञानम् कथम् अवाप्नोति । (पुंसः) मुक्तिः कथम् भविष्यति । ( पुंसः) वैराग्यम् च कथम् प्राप्तम् ( भवति ) एतत् मम ब्रूहि ॥१॥
Old king Janak asks the young Ashtavakra - How knowledge is attained, how liberation is attained and how non-attachment is attained, please tell me all this.॥
वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं
एक समय मिथिलाधिपति राजा जनक के मन में पूर्वपुण्य के प्रभाव से इस प्रकार जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि, इस असार संसाररूपी बंधन से किस प्रकार मुक्ति होगी और तदनंतर उन्होंने ऐसा भी विचार किया कि, किसी ब्रह्मज्ञानी गुरु के समीप जाना चाहिये, इसी अंतर में उन को ब्रह्मज्ञान के मानो समुद्र परम दयालु श्रीअष्टावक्रजी मिले । इन मुनि की आकृति को देखकर राजा जनक के मन में यह अभिमान हुआ कि, यह ब्राह्मण अंत्यत ही कुरूप है । तब दूसरे के चित्त का वृत्तांत जाननेवाले अष्टावक्रजी राजा के मन का भी विचार दिव्यदृष्टि के द्वारा जानकर राजा जनक से बोले कि, हे राजन् ! देहदृष्टि को छोडकर यदि आत्मदृष्टि करोगे तो यह देह टेढा है परंतु इस में स्थित आत्मा टेढा नहीं है, जिस प्रकार नदी टेढी होती है परंतु उस का जल टेढा नहीं होता है, जिस प्रकार इक्षु (गन्ना) टेढा होता है परंतु उस का रस टेढा नहीं है। तिसी प्रकार यद्यपि पांचभौतिक यह देह टेढा है, परंतु अंतर्यामी आत्मा टेढा नहीं है। किंतु आत्मा असंग, निर्विकार, व्यापक, ज्ञानघन, सचिदानंदस्वरूप, अखंड, अच्छेद्य, अभेद्य, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव है, इस कारण हे राजन् ! तुम देहदृष्टि को त्यागकर आत्मदृष्टि करो । परम दयालु अष्टावक्रजी के इस प्रकार के वचन सुनने से राजा जनक का मोह तत्काल दूर हो गया और राजा जनकने मन में विचार किया कि मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो गये, में अब इनको ही गुरु करूंगा। क्योंकि यह महात्मा ब्रह्मविद्या के समुद्ररूप है, जीवन्मुक्त हैं, अब इन से अधिक ज्ञानी मुझे कौन मिलेगा? अब तो इन से ही गुरुदीक्षा लेकर इनको ही शरण लेना योग्य है, इस प्रकार विचारकर राजा जनक अष्टावक्रजी से इस प्रकार बोले कि, हे महात्मन् ! मैं संसारबंधन से छूटने के निमित्त आप की शरण लेने की इच्छा करता हूं, अष्टावक्रजीने भी राजा जनक को अधिकारी समझकर अपना शिष्य कर लिया, तब राजा जनक अपने चित्त के संदेहों को दूर करने के निमित्त और ब्रह्मविद्या के श्रवण करने की इच्छा कर के अष्टावक्रजी से पूंछने लगे। अष्टावक्रजी से राजा जनक प्रश्न करते हैं कि - हे प्रभो ! अविद्याकर के मोहित नाना प्रकार के मिथ्या संकल्प विकल्पोंकर के बारंबार जन्ममरणरूप दुःखों को भोगनेवाले इस पुरुष को अविद्यानिवृत्तिरूप ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है ? इन तीनों प्रश्नों का उत्तर कृपा कर के मुझ से कहिये॥१॥
अष्टावक्र उवाच।
मुक्तिमिच्छसिचेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥२॥
तात ! चेन् मुक्तिम् इच्छसि ( तर्हि ) विषयान् विषवत् ( अवगत्य ) त्यज । क्षमार्जवदयातोषसत्यम् पीयूषवत् ( अवगत्य ) भज ॥२॥
श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥
Sri Ashtavakra answers - If you wish to attain liberation, give up the passions (desires for sense objects) as poison. Practice forgiveness, simplicity, compassion, contentment and truth as nectar.॥
श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥
इस प्रकार जब राजा जनकने प्रश्न किया तब ज्ञानविज्ञानसंपन्न परम दयालु अष्टावक्रमुनिने विचार किया कि, यह पुरुष तो अधिकारी है और संसारबंधन से मुक्त होने की इच्छा से मेरे निकट आया है, इस कारण इस को साधनचतुष्टयपूर्वक ब्रह्मतत्व का उपदेश करूं क्योंकि साधनचतुष्टय के बिना कोटि उपाय करने से भी ब्रह्मविद्या फलीभूत नहीं होती है इस कारण शिष्य को प्रथम साधनचतुष्टय का उपदेश करना योग्य है और साधनचतुष्टय के अनंतर ही ब्रह्मज्ञान के विषय की इच्छा करनी चाहिये, इस प्रकार विचार कर अष्टावक्राजी बोले कि-हे तात ! हे शिष्य ! संपूर्ण अनर्थो की निवृत्ति और परमानंदमुक्ति की इच्छा जब होवे तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पांचों विषयों को त्याग देवे । ये पांच विषय कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासि का इन पांच ज्ञानेंद्रियों के हैं, ये संपूर्ण जीव के बंधन हैं, इन से बंधा हुआ जीव उत्पन्न होता है और मरता है तब बड़ा दुःखी होता है, जिस प्रकार विष भक्षण करनेवाले पुरुष को दुःख होता है, उसी प्रकार शब्दादिविषयभोग करने वाला पुरुष दुःखी होता है। अर्थात् शब्दादि विषय महा अनर्थ का मूल है उन विषयों को तू त्याग दे। अभिप्राय यह है कि, देह आदि के विषय में मैं हूं, मेरा है इत्यादि अध्यास मत कर इस प्रकार बाह्य इंद्रियों को दमन करने का उपदेश किया. जो पुरुष इस प्रकार करता है उस को ’दम’ नामवाले प्रथम साधन की प्राप्ति होती है और जो अंतःकरण को वश में कर लेता है उस को ’शम’ नामवाली दूसरी साधनसंपत्ति की प्राप्ति होती है। जिस का मन अपने वश में हो जाता है उस का एक ब्रह्माकार मन हो जाता है, उस का नाम वेदांतशास्त्र में निर्विकल्पक समाधि कहा है, उस निर्विकल्पक समाधि की स्थिति के अर्थ क्षमा ( सब सह लेना ), आर्जव ( अविद्यारूप दोष से निवृत्ति रखना ), दया (बिना कारण ही पराया दुःख दूर करने की इच्छा), तोष ( सदा संतुष्ट रहना), सत्य (त्रिकाल में एकरूपता) इन पांच सात्विक गुणों का सेवन करे। जिस प्रकार कोई पुरुष अमृततुल्य औषधि सेवन करे और उस औषधि के प्रभाव से उस के संपूर्ण रोग दूर हो जाते हैं, उसी प्रकार जो पुरुष अमृततुल्य इन पांच गुणों को सेवन करता है, उस के जन्ममृत्युरूप रोग दूर हो जाते हैं अर्थात इस संसार के विषय में जिस पुरुष को मुक्ति की इच्छा होय वह विषयों का त्याग कर देवे, विषयों का त्याग करे बिना मुक्ति कदापि नहीं होती है, मुक्ति अनेक दुःखों की दूर करनेवाली और परमानंद की देनेवाली है इस प्रकार अष्टावक्रमुनिने प्रथम शिष्य को विषयों को त्यागने का उपदेश दिया ॥२॥
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न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥३॥
अन्वयः- (हे शिष्य !) भवान् पृथ्वी न । जलम् न। अग्निः न । वायुः न । वा द्यौः न । एषाम् साक्षिणम् चिद्रूपम् आत्मानम् मुक्तये विद्धि ॥३॥
आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥
You are neither earth, nor water, nor fire, nor air or space. To liberate, know the witness of all these as conscious self.॥
अब मुनि साधनचतुष्टयसंपन्न शिष्य को मुक्ति का उपदेश करते हैं, तहां शिष्य शंका करता है कि, हे गुरो ! पंच भूत का शरीर ही आत्मा है और पंचभूतोंके ही पांच विषय हैं, सो इन पंचभूतों का जो स्वभाव है उस का कदापि त्याग नहीं हो सकता, क्योंकि पृथ्वी से गंध का या गंध से पृथ्वी का कदापि वियोग नहीं हो सकता है, किंतु वे दोनों एकरूप होकर रहते हैं, इसी प्रकार रस और जल, अग्नि और रूप, वायु और स्पर्श, शब्द और आकाश है, अर्थात् शब्दादि पांच विषयों का त्याग तो तब हो सकता है जब पंच भूतों का त्याग होता है और यदि पंच भूत का त्याग होय तो शरीरपात हो जावेगा फिर उपदेश ग्रहण करनेवाला कौन रहेगा ? तथा मुक्तिसुख को कौन भोगेगा ? अर्थात् विषय का त्याग तो कदापि नहीं हो सकता इस शंका को निवारण करने के अर्थ अष्टावक्रजी उत्तर देते हैं-हे शिष्य ! पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा इन के धर्म जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध सो तू नहीं है इस पांचभौतिक शरीर के विषय में तू अज्ञान से अहम्भाव ( मैं हूं, मेरा है इत्यादि ) मानता है इन का त्याग कर अर्थात् इस शरीर के अभिमान का त्याग कर दे और विषयों को अनात्मधर्म जानकर त्याग कर दे। अब शिष्य इस विषय में फिर शंका करता है कि, हे गुरो ! मैं गौरवर्ण हूं, स्थूल हूं कृष्णवर्ण हूं, रूपवान हूं, पुष्ट हूं, कुरूप हूं, काणा हूं, नीच हूं, इस प्रकार की प्रतीति इस पांचभौतिक शरीर में अनादि काल से सब ही पुरुषों को हो जाती है, फिर तुमने जो कहा कि, तू देह नहीं है सो इस में क्या युक्ति है ? तब अष्टावक्र बोले कि, हे शिष्य ! अविवे की पुरुष को इस प्रकार प्रतीति होती है, विवेकदृष्टि से तू देह इंद्रयादि का द्रष्टा और देह इंद्रियादि से पृथक है। जिस प्रकार घट को देखनेवाला पुरुष घट से पृथक होता है, उसी प्रकार आत्माको भी सर्व दोषरहित और सब का साक्षी जान . इस विषय में न्यायशास्त्रवालों की शंका है, कि, साक्षिपना तो बुद्धि में रहता है, इस कारण बुद्धि ही आत्मा हो जायगी, इस का समाधान यह है कि, बुद्धि तो जड है और आत्मा चेतन माना है, इस कारण जड जो बुद्धि सो आत्मा नहीं हो सकता है, तो आत्मा को चैतन्यस्वरूप जान तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! चैतन्यरूप आत्मा के जानने से क्या फल होता है सो कहिये ? तिस के उत्तर में अष्टावक्रजी कहते हैं कि, साक्षी और चैतन्य जो आत्मा तिस को जानने से पुरुष जीवन्मुक्तपद को प्राप्त होता है, य ही आत्मज्ञान का फल है, मुक्ति का स्वरूप किसी के विचार में नहीं आया है, षटशास्त्रकार अपनी २ बुद्धि के अनुसार मुक्ति के स्वरूप की कल्पना करते हैं। न्यायशास्त्रवाले इस प्रकार कहते हैं कि, दुःखमात्र का जो अत्यंत नाश है वही मुक्ति है और बलवान् प्रभाकरमतावलंबी मीमांसकों का यह कथन है कि, समस्त दुःखों का उत्पन्न होने से पहिले जो सुख है वही मुक्ति है, बौधमतवालों का यह कथन है कि, देह का नाश होना ही मुक्ति है, इस प्रकार भिन्न २ कल्पना करते हैं, परंतु यथार्थ बोध नहीं होता है, किंतु वेदांतशास्त्र के अनुसार आत्मज्ञान ही मुक्ति है इस कारण अष्टावक्रमुनि शिष्य को उपदेश करते हैं।॥३॥
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यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बंधमुक्तो भविष्यसि ॥ ४ ॥
यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥
If you detach yourself from the body and rest in consciousness, you will become content, peaceful and free from bondage immediately.
अन्वयः- (हे शिष्य ! ) यदि देहम् पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य . तिष्ठसि ( तहि ) अधुना एंव सुखी शान्तः बन्धमुक्तः भविष्यसि ॥
हे शिष्य ! यदि तू देह तथा आत्मा का विवेक कर के अलग जानेगाऔर आत्मा के विषय में विश्राम कर के चित को एकाग्र करेगा तो तू इस वर्तमान ही मनुष्यदेह के विषय में सुख तथा शान्ति को प्राप्त होगा अर्थात् बंधमुक्त कहिये कर्तृत्व ( कर्तापना) भोक्तृत्व ( भोक्तापना) आदि अनेक अनर्थों से छूट जावेगा॥ ४ ॥
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न त्वं विप्रादि को वर्णों नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५॥
आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ॥
You do not belong to 'Brahman' or any other caste, you do not belong to 'Celibate' or any other stage, nor are you anything that the eyes can see. You are unattached, formless and witness of everything - so be happy.॥5॥
अन्वयः- त्वम् विप्रादिकः वर्णः न आश्रमी न अक्षगोचरः न (किन्तु, त्वम् ) असंगः निराकारः विश्वसाक्षी असि ( अतः कर्मासक्तिम् विहाय चिति विश्राम्य ) सुखी भव ॥
शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं तो वर्णाश्रम के धर्म में हूं इस कारण मुझे वर्णाश्रम कर्म का करना योग्य है, अर्थात् वर्णाश्रम के कर्म करने से आत्मा के विषय में विश्राम कर के मुक्ति किस प्रकार होगी ? तब तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, तू ब्राह्मण आदि नहीं है, तूब्रह्मचारी आदि किसी आश्रम में नहीं है। तहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि, मैं ब्राह्मण हूं, मैं संन्यासी हूं इत्यादि प्रत्यक्ष है, इस कारण आत्मा ही वर्णश्रमी है। तहां गुरु समाधान करते हैं कि, आत्मा का इंद्रिय तथा अंतःकरण कर के प्रत्यक्ष नहीं होता है और जिस का प्रत्यक्ष होता है वह देह है, तहां शिष्य फिर प्रश्न करता है कि, मैं क्या वस्तु हूं ? तहां गुरुसमाधान करते हैं कि, तू असंग अर्थात् देहादिक उपाधि यथा आकाररहित विश्व का साक्षी आत्मस्वरूप है, अर्थात् तुझ में वर्णाश्रमपना नहीं है, इस कारण कर्मों के विषय में आसक्ति न कर के चैतन्यरूप आत्मा के विषय में विश्राम कर के परमानंद को प्राप्त हो ॥५॥
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धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥ ६ ॥
धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं॥६॥
Righteousness, unrighteousness, pleasure and pain are connected with the mind and not with the all-pervading you. You are neither the doer nor the reaper of the actions, so you are always almost free.॥6॥
अन्वयः- हे विभो ! धर्माधर्मौ सुखम् दुःखम् मानसानि ते न (त्वम् ) कर्ता न असि भोक्ता न असि (किन्तु ) सर्वदा मुक्त एव असि ॥ ६ ॥
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, वेदोक्त वर्णाश्रम के कर्मों को त्यागकर आत्मा के विषें विश्राम करनेमें भी तो अधर्मरूप प्रत्यवाय होता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! धर्म, अधर्म, सुख और दुःख यह तो मन का संकल्प है. तिस कारण तिन धर्माधमादि के साथ तेरा त्रिकालमें भी संबंध नहीं है। तू कर्ता नहीं है, तू भोक्ता नहीं है, क्योंकि विहित अथवा निषिद्ध कर्म करता है वही सुख दुःख का भोक्ता है । सो तुझ में नहीं है क्योंकि तूं तो शुद्धस्वरूप है, और सर्वदा कालमुक्त है । अज्ञान कर के भासनेवाले सुख दुःख आत्मा के विषें आश्रय करके ही निवृत्त हो जाते हैं ॥६॥
ए को द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हिते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥
अन्वयः- ( हे शिष्य ! त्वम् ) सर्वस्य द्रष्टा एकः असि सर्वदा मुक्तप्रायः असि हि ते अयम् एव बन्धः (यम् ) द्रष्टारम् इतरम् पश्यसि ॥७॥
आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं॥७॥
You are the solitary witness of all that is, almost always free. Your only bondage is understanding the seer to be someone else.॥7॥
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, शुद्ध, एक, नित्य मुक्त ऐसा जो आत्मा है तिस का बंधन किस निमित्त से होता है कि, जिस बंधन के छुटान के अर्थ बडे २ योगी पुरुष यत्न करते हैं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तू अद्वितीय सर्वसाक्षी सर्वदा मुक्त है, तू जो द्रष्टा को द्रष्टा न जानकर अन्य जानता है य ही बंधन है । सर्व प्राणियों में विद्यमान आत्मा एक ही है और अभिमानी जीव के जन्मजन्मांतर ग्रहण करनेपर भी आत्मा सर्वदा मुक्त है । तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, फिर संसारबंध क्या वस्तु है ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, यह प्रत्यक्ष देहाभिमान ही संसारबंधन है अर्थात् यह कार्य करता हूं, यह भोग करता हूं इत्यादि ज्ञान ही संसारबंधन है, वास्तव में आत्मा निर्लेप है, तथापि देह और मन के भोग को आत्मा का भोग मानकर बद्धसा हो जाता है ॥७॥
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अहं कतैत्यहमानमहाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव॥८॥
अन्वयः- (हे शिष्य ! ) अहम् कर्ता इति अहंमानमहाकृष्णाहिंदंशितः ( त्वम् ) अहं कर्ता न इति विश्वासामृतम् पीत्वा सुखी भव ॥८॥
अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं। 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये॥८॥
Ego poisons you to believe: “I am the doer”. Believe “I am not the doer”. Drink this nectar and be happy.॥8॥
यहांतक बंधहेतु का वर्णन किया अब अनर्थ के हेतु का वर्णन करते हुए अनर्थ की निवृत्ति और परमानंद के उपाय का वर्णन करते हैं। मैं कर्ता हूं’ इस प्रकार अहंकाररूप महाकाल सर्प से तू काटा हुआ है इस कारण मैं कर्ता नहीं हूं इस प्रकार विश्वासरूप अमृत पीकर सुखी हो । आत्माभिमानरूप सर्प के विष से ज्ञानरहित और जर्जरीभूत हआ है, यह बंधन जितने दिनोंतक रहेगा तबतक किसी प्रकार सुख की प्राप्ति नहीं होगी; जिस दिन यह जानेगा कि, मैं देहादि कोई वस्तु नहीं हूं, मैं निर्लिप्त हूं उस दिन किसी प्रकार का मोह स्पर्श नहीं कर सकेगा ॥८॥
ए को विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकःसुखी भव॥९॥
अन्वयः- ( हे शिष्य ! ) अहम् विशुद्धबोधः एकः ( अस्मि) इति निश्चयवह्निना अज्ञानगहनम् प्रज्वाल्य वीतशोकः ( सन ) सुखी भव ॥९॥
मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ॥९॥
The resolution "I am single, pure knowledge” consumes even the dense ignorance like fire. Be beyond disappointments and be happy.॥9॥
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्मज्ञानरूपी अमृत पान किस प्रकार करूं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! मैं एक हूं अर्थात् मेरे विषें सजाति विजाति का भेद नहीं है और स्वगतभेद भी नहीं है, केवल एक विशुद्धबोध और स्वप्रकाशरूप हूं, निश्चयरूपी अग्नि से अज्ञानरूपी वन का भस्म कर के शोक, मोह, राग, द्वेष, प्रवृत्ति, जन्म, मृत्यु इन के नाश होनेपर शोकरहित होकर परमानंद को प्राप्त हो ॥९॥
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनन्दपरमानन्दःस बोधस्त्वं सुखंचर ॥ १० ॥
जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ॥१०॥
Feel the ecstasy, the supreme bliss where this world appears unreal like a snake in a rope, know this and move happily.॥10॥
अन्वयः- यत्र इदम् विश्वम् रज्जुसर्पवत् कल्पितम् भाति सः आनन्दपरमानन्दः बोधः त्वम् सुखम् चर ॥ १० ॥
तहां शिष्य शंका करता है कि, आत्मज्ञान से अज्ञानरूपी वन के भस्म होनेपर भी सत्यरूप संसार की ज्ञान से निवृत्ति न होने के कारण शोकरहित किस प्रकार होऊंगा ? तब गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार रज्जु के विषें सर्प की प्रतीति होती है और उस का भ्रम प्रकाश होने से निवृत्ति हो जाती है, तिस प्रकार ब्रह्म के विषें जगत् की प्रतीति अज्ञानकल्पित है ज्ञान होने से नष्ट हो जाती है। तू ज्ञानरूप चैतन्य आत्मा है, इस कारण सुखपूर्वक विचर । जिस प्रकार स्वप्न में किसी पुरुष को सिंह मारता है तो वह बड़ा दुःखी होता है परंतु निद्रा के दूर होनेपर उस कल्पित दुःख का जिस प्रकार नाश हो जाता है तिस प्रकार तू ज्ञान से अज्ञान का नाश कर के सुखी हो । तहां शिष्य प्रश्न करता है, कि, हे गुरो ! दुःखरूप जगत् अज्ञान से प्रतीत होता है और ज्ञान से उस का नाश हो जाता है परंतु सुख किस प्रकार प्राप्त होता है ? तब गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! जब दुःखरूपी संसार के नाश होनेपर आत्मा स्वभाव से ही आनंदस्वरूप हो जाता है, मनुष्यलोक से तथा देवलोक से आत्मा का आनंद परम उत्कृष्ट और और अत्यंत अधिक है श्रुतिमें भी कहा है, “एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रमुपजीवन्ति “ इति॥१०॥
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किंवदंतीहसत्येयं या मतिःसा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥
अन्वयः- इह मुक्ताभिमानी मुक्तः अपि बद्धाभिमानी बद्धः हि या मतिः सा गतिः भवेत् इयम् किंवन्दती सत्या ॥ ११ ॥
स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥
If you think you are free you are free. If you think you are bound you are bound. It is rightly said: You become what you think.॥11॥
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हे प्रभु पुरुष आत्मज्ञान को कैसे प्राप्त होता है संसार बंधन से कैसे मुक्त हो जाता है अर्थात जन्म मरण रूपी संसार से कैसे छूट जाता है एवं वैराग्य को कैसे प्राप्त होता है राजा का तात्पर्य था ऋषि वैराग्य के स्वरूप को उसके कारण को और उसके फल को ज्ञान के स्वरूप को उसके कारण को और उसके फल को मुक्ति के स्वरूप को उसके कारण को और उसके भेद को मेरे पति विस्तार सहित कहे राजा के प्रश्नों को सुनकर अष्टावक्र ने अपने मन में विचार किया कि संसार में चार प्रकार के पुरुष है एक ज्ञानी है दूसरा मुक्त हो तीसरा ज्ञानी और चौथा मूड है यानी कि अष्टावक्र ने मानव को चार भागों में बांटा ज्ञानी मूर्ख अज्ञानी और मोड चारों में से राजा तो ज्ञानी नहीं है क्योंकि संख्या और भी परिवार से रहित होता है और आत्मानंद करके आनंदित होता है वही ज्ञानी होता है परंतु राजा ऐसा नहीं है किंतु यह संशय करके युक्त है यह यही सुकरात अरस्तु और प्लेटों में राजा की जो परिभाषा दी गई है जिस दर्शन को शासक के लिए गंभीर रूप में स्वीकार किया गया है लगभग उसका समानुपात विवरण भी इसी के अंतर्गत इंगित होता है परंतु राजा ऐसा नहीं है कि तू ऐसे अगर तू युक्त अज्ञानी भी नहीं है क्योंकि और संभावना अधिक उपयुक्त होता है उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है उसके में सर्वाधिक फलों की कामनाएं भरी उसका नाम ज्ञानियों पर ऐसा नहीं होता यदि ऐसा हो तो यह विषय में विचार करता हो तो नहीं किया मूर्ति वाला भी नहीं है क्योंकि बुद्धि वाला होता है कभी भी आत्मा को दंडवत प्रणाम नहीं आता जाता नहीं है क्योंकि हमको महात्मा मानकर उसका सत्कार करके अपने फोन में लाकर के जिज्ञासु की तरह राजा ने प्रश्नों को किया है इससे सिद्ध होता है आजा जिज्ञासु आर्थो है आत्मविद्या का पूर्ण अधिकार है साधनों को बिना आत्महत्या की प्राप्ति नहीं होती है इस वास्ते अष्टावक्र जी ने प्रथम राजा के प्रति साधनों को कहते हैं मुक्ति क्षेत्र विषय विषय आती है पांच ज्ञानेंद्रियों **ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य के वे अंग है जो देखने, सुनने, महसूस करने, स्वाद-ताप-रंग अदि का पता लगाते हैं। मानव शरीर में त्वचा, आँख, कान, नाक और जिव्हा आदि पाँच प्रकार की ज्ञानेन्द्रियाँ होती है। त्वचा महसूस करने का, आँखे देखने का, कान सुनने का, नाक गंध का पता लगाने का और जिह्वा स्वाद को परखने का काम करती है। ज्ञानेंद्रियों का महत्व तब सामने आता है जब कोई व्यक्ति विशेष इन्हें अपने वश में कर ले। ज्ञानेंद्रियां मनुष्य जाति को श्रेणीबद्ध करने की एकल प्राकृतिक शक्तियां हैं। प्रकृति ने हर जीव मात्र को एक खास प्रकार की शक्तियों के साथ जन्म दिया है। उन मानविक शक्तियों में ज्ञानेंद्रियों की महत्ता विशेष है। जिस इंसान के भीतर जितना साफ आईना मौजूद होता है, उस इंसान के अंदर उतनी ही अधिक परस्पर ज्ञानेंद्रियों की ऊर्जा का विकास होता है। एक अंधे व्यक्ति या एक बहरे व्यक्ति के भीतर भी ऊर्जा का विकास होता है, उसी ऊर्जा से जीवन की कुशलता प्राप्त होती है। एक स्वस्थ एवं सुंदर इंसान के भीतर भी वह ऊर्जा विकसित नहीं हो पाती, जो एक कुरूप हो अथवा विकल अंगों के साथ जीवन का दर्शन करता है वहां ऊर्जा विकास कर फल देती है। ज्ञानेंद्रियों की एक खास गति से ही अलौकिक ऊर्जा का संबंध है।** पांच ज्ञानेंद्रियों के जो शब्द इस प्रसादी पांच विषय है उनको तो विश्व की तरह त्याग दें क्योंकि जैसे विश्व के खाने से पुरुष मर जाता है वैसे ही इन विषयों के भौंकने से भी पुरुष संसार चक्र रूपी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इसलिए मुमुक्षु को प्रथम इनका त्याग करना आवश्यक है और इन विषयों के अत्यंत भोगने से रोग आदि उत्पन्न होते हैं और बुद्धि भी मलिन होती है एवं सार और एसआर वस्तु का विवेक नहीं रहता इसलिए ज्ञान के अधिकारी को प्रसारित होगा इनका त्याग करना ही मुख्य कर्तव्य है प्रश्न हे भगवान विषय भोग के त्यागने से शरीर नहीं रह सकता है और जितने भी बड़े-बड़े ऋषि राज ऋषि हुए हैं उन्होंने भी इनका त्याग नहीं किया और वह आत्म ज्ञान को प्राप्त हुए हैं और वह भी बोलते रहे फिर आप हम से कैसे कह सकते हैं इनको त्यागो अष्टावक्र जी कहते हैं कि हे राजन आपका कहना सत्य है एवं स्वरूप से विषय भी नहीं त्यागे जाते हैं परंतु इनमें जो अति आ सकती है अर्थात 5 विषयों में से किसी एक के प्राप्त होने से चित्र की व्याकुलता होना और सदैव उसी में मन का लगा रहना आ सकती है उसके त्याग का नाम ही विषयों का त्याग है अतः जो प्रारब्ध भोग से प्राप्त हो उसी में संतुष्ट होना लो लूटने होना और उनकी प्राप्ति के लिए असत्य असत्य भाषण आदि का नया करना किंतु प्राप्ति काल मैं उनमें दोस्त दृष्टि और ग्लानि होती है और उसके त्यागी की इच्छा होने और उसे उन की प्राप्ति के लिए किसी के आगे बीन ने हो ना उसी का नाम वैराग्य है जनक जी ने एक प्रश्न का उत्तर प्राप्त हुआ है एक भगवान संसार में नंगे रहने को भिक्षा मांग कर खाने वाले खोलो वैराग्य वान कहते हैं और उसमें से जड़ भरत आदि को दृष्टांत देते हैं आपके कथन से लोगों का कथन विरुद्ध पड़ता है संसार में जो मूड बुद्धि वाले हैं वही नंगे रहते हैं या मांग कर खाने वाले को वैराग्य वान जानते हैं और रंगों से कान फुक्वा कर उनके पशु बनते हैं परंतु युक्ति और प्रमाण से वार्ता विरुद्ध है यदि नंगे रहने से ही वैराग्य वान हो ना हो तो सब पशु कर पागल आदि को को भी वैराग्य वान कहना चाहिए पर ऐसा तो नहीं देखते और यदि मांग कर खाने वाले से वैराग्य वान हो जाए तो सब धरित्री वह भी वैराग्य वान कहना चाहिए परंतु ऐसा तो नहीं है इन्हें युक्तियों से सिद्ध होता है कि ना रहने और मांग कर खाने वालों का नाम वैराग्य माल नहीं है यदि कहो तो विचार पूर्वक नंगे रहने वाले का नाम वैराग्य माने तो यह भी वार्ता शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि विचार कहॉं उन पर विचार है अथवा विचारणीय सामाजिक सिद्धान्त है दीनहीनमलिन के विरूद्ध बोध गम्य सार कुछ नहीं है
शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बन्धन से छूट जाना ही मोक्ष है। इसे 'विमोक्ष', 'विमुक्ति' और 'मुक्ति' भी कहा जाता है। भारतीय दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है ।
गुरु पारस को अन्तरो , जानत हैं सब संत । वह लोहा कंचन करे , ये करि लेय महंत ।। --गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जनते हैं । पारस मणी के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बाण जाता है किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान मे ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं ।
प्रेम बिना जो भक्ती ही सो निज दंभ विचार । उदर भरन के कारन , जन्म गंवाये सार ।।-- प्रेम के बिना की जाने वाली भक्ती , भक्ती नहीं बल्की पाखंड ही । वाहय आडम्बर है । प्रदर्शन वाली भक्ति को स्वार्थ कहते है जो पेट पालने के लिए करते है । सच्ची भक्ति के बिना सब कुछ व्यर्थ है । भक्ति का आधार प्रेम है अतः प्रेम पूर्वक भक्ति करे जिससे फल प्राप्त हो ।
भक्ति बिना नहिं निस्तरै , लाख करै जो काय ।शब्द सनेही है रहै , घर को पहुचे सोय ।। -- भक्ति के बिना उद्धार होना संभव नहीं है चाहे कोई लाख प्रयत्न करे सब व्यर्थ है । जो जीव सद्गुरु के प्रेमी है , सत्यज्ञान का आचरण करने वाले है वे ही अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सके है ।
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शिष्य शंका करता है कि, यदि संपूर्ण संसार रज्जु के विषय में सर्प की समान कल्पित है, वास्तव में आत्मा परमानंदस्वरूप है तो बंध मोक्ष किस प्रकार होता है ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस पुरुष को गुरु की कृपा से यह निश्चय हो जाता है कि, मैं मुक्तरूप हूं वही मुक्त है और जिस के ऊपर सद्गुरु की कृपा नहीं होती है और वह यह जानता है कि, मैं अल्पज्ञ जीव और संसारबंधन में बंधा हुआ हूं वही बद्ध है, क्योंकि बन्ध और मोक्ष अभिमान से ही उत्पन्न होते है अर्थात् मरणसमय में जैसा अभिमान होता है वैसी ही गति होती है यह बात श्रुति, स्मृति, पुराण और ज्ञानी पुरुष प्रमाण मानते हैं कि, “मरणे या मतिः सा गतिः” सोई गीतामें भी कहा है कि, “ यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यंते कलेवरम् । तं तमेवैति कौंतेय सदा तद्भावभावितः ॥” इस का अभिप्राय यह है कि, श्रीकृष्णजी उपदेश करते हैं कि, हे अर्जुन ! अन्तसमय में जिस २ भाव को स्मरण करता हुआ पुरुष शरीर को त्यागता है तस २ भावना से तिस २ गतिको ही प्राप्त होता है। श्रुतिमें भी कहा है कि “ तं विद्याकर्मणी समारभेते पूर्वप्रज्ञा च” इस का भी य ही अभिप्राय है और बंध तथा मोक्ष अभिमान से होते हैं वास्तव में नहीं. यह वार्ता पहले कह आये हैं तो भी दूसरी बार शिष्य को बोध होने के अर्थ कहा है इस कारण कोई दोष नहीं है क्योंकि आत्मज्ञान अत्यंत कठिन है ॥११॥
आत्मा साक्षी विभुःपूर्णए को मुक्तश्चिदक्रियः ।
असंगोनिःस्पृहः शान्तोभ्रमात्संसारवानिव॥१२॥
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥
The soul is witness, all-pervading, infinite, one, free, inert, neutral, desire-less and peaceful. Only due to illusion it appears worldly.॥12॥
अन्वयः- साक्षी विभुः पूर्णः एकः मुक्तः चित् अक्रियः असङ्गः निःस्पृहः शान्तः आत्मा भ्रमात् संसारवान इव (भाति )॥१२॥
जीवात्मा के बंध और मोक्ष पारमार्थिक हैं इस तार्किक की शंका को दूर करने के निमित्त कहते हैं कि, अज्ञान से देह को आत्मा माना है तिस कारण वह संसारी प्रतीत होता है परंतु वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है, क्योंकि आत्मा तो साक्षी है और अहंकारादि अंतःकरण के धर्म को जाननेवाला है और विभु अर्थात् नाना प्रकार का संसार जिस से उत्पन्न हुआ है, सर्व का अनुष्ठान है, संपूर्ण व्यापक है, एक अर्थात् स्वगतादिक तीन भेदों से रहित है, मुक्त अर्थात् माया का कार्य जो संसार तिस के बंधन से रहित, चैतन्यरूप, अक्रिय, असंग, निस्पृह अर्थात् विषय की इच्छा से रहित है और शान्त अर्थात् प्रवृत्तिनिवृत्तिरहित है इस कारण वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है ॥ १२॥
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।
अभासोहंभ्रमंमुक्त्वाभावंबाह्यमथांतरम् ॥ १३ ॥
अन्वयः- अभासः अहम् (इति) भ्रमम् अथ बाह्यम् अन्तरम् भावम् मुक्त्वा आत्मानम् कूटस्थम् बोधम् अद्वैतम् परिभावय ॥ १३ ॥
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें॥१३॥
Meditate on unchanging, conscious and non-dual Self. Be free from the illusion of 'I' and think this external world as part of you.॥13॥
मैं देहरूप हूं, स्त्री पुत्रादिक मेरे हैं, मैं सुखी हूं, दुःखी हूं यह अनादि काल का अज्ञान एक बार आत्मज्ञान के उपदेश से निवृत्त नहीं हो सकता है। व्यासजीने भी कहा है “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्” “श्रोतव्यमंतव्य” ॥ इत्यादि श्रुति के विषय में बारंबार उपदेश किया है, इस कारण श्रवण मननादि बारंबार करने चाहिये, इस प्रमाण के अनुप्तार अष्टावकमुनि उत्सित वासनाओं का त्याग करते हुए बारंबार अद्वैत भावना का उपदेश करते हैं कि, मैं अहंकार नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, स्त्रीपुत्रादिक मेरे नहीं हैं, मैं सुखी नहीं हूं, दुःखी नहीं हूं, मूढ नहीं हूं इन बाह्य और अंतर को भावनाओं का त्याग कर के कूटस्थ अर्थात् निर्विकार बोधरूप अद्वैत आत्मस्वरूप का विचार कर ॥१३॥
देहाभिमानपाशेन चिरंबद्दोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखड्गेन तन्निः कृत्य सुखी भव॥१४॥
अन्वयः- है पुत्रक ! देहाभिमानपाशेन चिरम् बद्धः असि ( अतः ) अहम् बोधः (इति) ज्ञानखड्गेन तम् निःकृत्य सुखी भव ॥ १४ ॥
हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ॥१४॥
O son, you have become habitual of thinking- “I am body” since long. Experience the Self and by this sword of knowledge cut that bondage and be happy.॥14॥
अनादि काल का यह देहाभिमान एक बार उपदेश करने से निवृत्त नहीं होता है इस कारण गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अनादिकाल से इस समयतक देहाभिमानरूपी फाँसी से तू दृढ बंधा हुआहै, अनेक जन्मोंमें भी उस बंधन के काटने को तू समर्थ नहीं होगा इस कारण, शुद्ध विचार बारंबार कर के ’मैं बोधरूप’ अखंड परिपूर्ण आत्मरूप हूं, इस ज्ञानरूपी खड्ग को हाथ में लेकर उस फाँसी को काटकर सुखी हो ॥१४॥
निःसंगो निष्क्रियोऽसि तं स्वप्रकाशो निरंजनः ।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि ॥१५॥
अन्वयः- (हे शिष्य ! ) त्वम् ( वस्तुतः ) स्वप्रकाशः निरंजनः निःसंगः निष्क्रियः असि (तथापि ) हि ते बन्धः अयम् एव ( यत् ) समाधिम् अनुतिष्ठसि ॥ १५ ॥
आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है॥१५॥
You are free, still, self-luminous, stainless. Trying to keep yourself peaceful by meditation is your bondage.॥15॥
केवल चित्त की वृत्ति का निरोधरूप समाधि ही बंधन की निवृत्ति का हेतु है इस पातंजलमत का खंडन करते हैं कि, पातंजलयोगशास्त्र में वर्णन किया है कि, जिस के अंतःकरण की वृत्ति विराम को प्राप्त हो जाती है उस का मोक्ष होता है सो यह बात कल्पनामात्र ही है अर्थात् तू अंतःकरण की वृत्ति को जीतकर सविकल्पक हठसमाधि मत कर क्योंकि तू निःसंग क्रियारहित स्वप्रकाश और निर्मल है इस कारण सविकल्प हठसमाधि का अनुष्ठान भी तेरा बंधन है, आत्मा सदा शुद्ध मुक्त है तिस कारण भ्रांतियुक्त जीव के चित्त को स्थिर करने के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करने से आत्मा की हानि वृद्धि कुछ नहीं होती है जिस को सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो जाता है उस को अन्य समाधिक अनुष्ठान से क्या प्रयोजन है ? इस कारण ही राजा जनक के प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधि का अनुष्ठान करता है य ही तेरा बंधन है, परंतु आत्मज्ञानविहीन पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमःक्षुद्रचित्तताम्॥१६॥
अन्वयः- (हे शिष्य ! ) इदम् विश्वम् त्वया व्याप्तम् त्वयि प्रोतम् यथार्थतः शुद्धबुद्ध स्वरूपः त्वम् क्षुद्रचित्तताम् मा गमः ॥१६॥
यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥
You have pervaded this entire universe; really, you have pervaded it all. You are pure knowledge, don't get disheartened.॥16॥
अब शिष्य की विपरीत बुद्धि को निवारण करने के निमित्त गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार सुवर्ण के कटक कुंडल आदि सुवर्ण से व्याप्त होते हैं इसी प्रकार यह दृश्यमान संसार तुझ से व्याप्त है और जिस प्रकार मृत्तिका के विषय में घट शराव आदि किया हुआ होता है तिसी प्रकार यह संपूर्ण संसार तेरे विषय में प्रोत है, हे शिष्य ! यथार्थ विचार कर के तू सर्व प्रपंचरहित है तथा शुद्ध बुद्ध चिद्रूप है, तू चित्त की वृत्ति को विपरीत मत कर ॥१६॥
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः ॥ १७॥
अन्वयः- (हे शिष्य ! त्वम् ) निरपेक्षः निर्विकारः निर्भरः शीतलाशयः अगाधबुद्धिः अक्षुब्धः चिन्मात्रवासनो भव ॥ १७॥
आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये॥१७॥
You are desire-less, changeless, solid and abode to calmness, unfathomable intelligent. Be peaceful and desire nothing but consciousness.॥17॥
इस देह के विषय में छः उर्मी तथा छः भावविकार प्रतीत होते हैं सो तू नहीं है किन्तु उन से भिन्न और निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित है, तहां शिष्य आशंका करता है कि, हे गुरो! छः उर्मी और छः भावविकारों को विस्तारपूर्वक वर्णन करो तहां गुरु वर्णन करते हैं कि, हे शिष्य ! क्षुधा, पिपासा (भूख प्यास ) ये दो प्राण की ऊर्मी अर्थात् धर्म हैं और तिसी प्रकार शोक तथा मोह ये दो मन की ऊर्मी हैं. तिसी प्रकार जन्म और मरण ये दो देह की ऊर्मी हैं, ये जो छः ऊर्मी हैं सो तू नहीं है अब छः भावविकारों को श्रवण कर “जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति” ये छः भाव स्थूलदेह के विषें रहते हैं सो तू नहीं है तू तो उन का साक्षी अर्थात् जाननेवाला है, तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं कौन और क्या हूं सो कृपा कर के कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तू निर्भर अर्थात् सच्चिदानंदघनरूप है, शीतल अर्थात् सुखरूप है, तू अगाधबुद्धि अर्थात् जिस की बुद्धि का कोई पार न पा स के ऐसा है और अक्षुब्ध कहिये क्षोभरहित है इस कारण तू क्रिया का त्याग कर के चैतन्यरूप हो ॥१७॥
साकारमनृतं विद्धि निराकारंतु निश्चलम्।
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः॥१८॥
आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥
Know that form is unreal and only the formless is permanent. Once you know this, you will not take birth again.॥18॥
अन्वयः- (हे शिष्य !) साकारम् अनृतम् निराकार तु निश्चलम् विद्धि एतत्तत्त्वोपदेशेन पुनर्भव सम्भवः न ॥ १८॥
श्रीगुरु अष्टावक्रमुनिने प्रथम एक श्लोक में मोक्ष का विषय दिखाया था कि, “विषयान् विषवत्त्यज” और “सत्यं पीयूषवद्भज” इस प्रकार प्रथम श्लोक में सब उपदेश दिया। परंतु विषयों के विषतुल्य होने में और सत्यरूप आत्मा के अमृततुल्य होने में कोई हेतु वर्णन नहीं किया सो १७ वें श्लोक के विषय में इस का वर्णन कर के आत्मा को सत्य और जगत् को अध्यस्त वर्णन किया है. दर्पण के विषें दीखता हुआ प्रतिबिम्ब अध्यस्त है, यह देखने मात्र होता है सत्य नहीं, क्योंकि दर्पण के देखने से जो पुरुष होता है उस का शुद्ध प्रतिबिंब दीखता है और दर्पण के हटान से यह प्रतिबिंब पुरुष में लीन हो जाता है इस कारण आत्मा सत्य है और उस का जो जगत् वह बुद्धियोग से भासता है तिस जगत् को विषतुल्य जान और आत्मा को सत्य जान तब मोक्षरूप पुरुषार्थ सिद्ध होगा इस कारण अब तीन श्लोकों से जगत् का मिथ्यात्व वर्णन करते हैं कि-हे शिष्य ! साकार जो देह तिस को आदि ले संपूर्ण पदार्थ मिथ्या कल्पित हैं और निराकार जो आत्मतत्त्व सो निश्चल है और त्रिकाल में सत्य है, श्रुतिमें भी कहा है “ नित्यं विज्ञानमानंदं ब्रह्म “ इस कारण चिन्मात्ररूप तत्व के उपदेश से आत्मा के विषें विश्राम करने से फिर संसार में जन्म नहीं होता है अर्थात् मोक्ष हो जाता है ॥ १८॥
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।
तथैवास्मिन्शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः१९॥
जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥
Just as form exists inside a mirror and outside it, Supreme Self exists both within and outside the body.॥19॥
अन्वयः- यथा एव आदर्शमध्यस्थे रूपे अन्तः परितः तु सः (व्याप्य वर्त्तते ) तथा एव अस्मिन् शरीरे अन्तः परितः परमेश्वरः (व्याप्य स्थितः)॥१९॥
अब गुरु अष्टावक्रजी वर्णाश्रमधर्मवाला जो स्थूल शरीर है तिस से और पुण्यअपुण्यधर्मवाला जो लिङ्गशरीर है तिस से विलक्षण परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप का दृष्टांतसहित उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! वर्णाश्रमधमरूप स्थूलशरीर तथा पुण्यपापरूपी लिंगशरीर यह दोनों जड हैं सो आत्मा नहीं हो सकते हैं क्योंकि आत्मा तो व्यापक है इस विषय में दृष्टांत दिखाते हैं कि, जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंब पडता है, उस दर्पण के भीतर और बाहर एक पुरुष व्यापक होता है। तिसी प्रकार इस स्थूल शरीर के विषें एक ही आत्मा व्याप रहा है सो कहा भी है “यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जु सर्पवत् “ अर्थात् जिस परमात्मा के विषें यह विश्व रज्जु के विषें कल्पित सर्प की समान प्रतीत होता है, वास्त में मिथ्या है ॥ १९॥
एकं सर्वगतं व्योम बहिरंतर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥२०॥
जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥
Just as the same space exists both inside and outside a jar, the eternal, continuous God exists in all.॥20॥
अन्वयः- यथा सर्वगतम् एकम् व्योम घटे बहिः अंतः वर्तते तथा नित्यम् ब्रह्म सर्वभूतगणे निरन्तरम् वर्तते ॥ २० ॥
ऊपर के श्लोक में कांच का दृष्टांत दिया है तिस में संशय होता है कि, कांच में देह पूर्णरीतिसे व्याप्त नहीं होता है तिसी प्रकार देह में कांच पूर्ण रीतिसे व्याप्त नहीं होती है कारण दूसरा दृष्टांत कहते हैं कि, जिस प्रकार आकाश है, वह घटादि संपूर्ण पदार्थों में व्याप रहा है, तिसी प्रकार अखंड अविनाशी ब्रह्म है वह संपूर्ण प्राणियों के विषें अंतर में तथा बाहर में व्याप रहा है, इस विषय में श्रुति का भी प्रमाण है, “ एष त आत्मा सर्वस्यान्तरः” इस कारण ज्ञानरूपी खड़ को लेकर देहाभिमानरूपी फाँसी को काटकर सुखी हो ॥२०॥
इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितमात्मानुभवोपदेशवर्णनंनाम प्रथमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १॥
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##मैं पिछले20 वर्षो से थाइराइड,डायबेटिक,हार्ट संबंधित रोग,लीवर आदि प्रमुख बीमारियों का खानपान में परिवर्तन कर शतप्रतिशत इलाज का प्रयास कर रहा हू, सही आहार एंव न्युनतम होम्योपेथिक दवाओं से पूर्णतया बीमारी को जड़ से खत्म किया जा सकता है ऐसा मेरा यह मानना है, तथा मैने शतप्रतिश हजारो लोगों में तथा हर आयुवर्ग में सफल प्रयोग किया है, न्युनतम व्यय- प्राय हम हम जो सात्विक भोजन पर व्यय करते है उसी के अनुरूप ही व्यय है को किया जाकर हमारी दैनिक आदतों में बीमारी से लड़ने तथा ठीक होने के प्रयास मोजूद है । यह कि आहार में प्रमुख परिवर्तन करके ही बीमारियों से लड़ा जा सकता है तथा बीमारियों से निजात पाई जा सकती है ।
//PL USE THE BARLEY,SHORGUM,MILLET,GRAM,MAIZE LENTIL LIKE MOONG AND MOTH//
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For the last 20 years, I am trying to cure 100% of the major diseases like thyroid, diabetic, heart related diseases, liver etc. It is, and I have done 100% successful experiment in thousands of people and in every age group, the minimum expenditure - usually the expenditure we spend on sattvik the whole grain 8-9 type coarse gains- the veg food is the same as it should be done in our daily habits to fight disease and get cured. The effort exists. That only by making major changes in the diet, diseases can be fought and diseases can be overcome.
Benefits of Multigrain-Health.gov's 2015-2020 Dietary Guidelines for Americans suggests that you eat 6 ounces of grain daily and get at least half of that from whole grains,
Benefits of Multigrain - How can We are diet plan with whole grains,bean and lentils Present study was undertaken for development of gluten free processed products i.e. cookies and pasta by incorporation of gluten-free ingredients in different proportions. Gluten free raw ingredients i. e. finger millet (FM), pearl millet (PM), soya bean (SB) and ground
contd part 2